बरेली। स्वामी प्रसाद का डर कहें या शिवपाल सिंह यादव का सही से चुनावी एडजस्टमेंट, समाजवादी पार्टी जल्दबाजी में लोकसभा उम्मीदवारों का ऐलान कर रही है तो साथ साथ भूल सुधार भी उतनी ही जल्दी करती दिख रही है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भाई धर्मेन्द्र यादव को बदायूं के रण में भेजने के बाद कुछ ही दिन में फैसला बदला दिया है। बदायूं से अब धर्मेन्द्र यादव की जगह चाचा शिवपाल सिंह यादव को प्रत्याशी घोषित किया गया है। बरेली से सपा ने पूर्व सांसद प्रवीण सिंह ऐरन को प्रत्याशी बनाया है, जो 2009 में कई बार के भाजपा सांसद संतोष गंगवार को शिकस्त दे चुके हैं और उनकी पत्नी सुप्रिया ऐरन बरेली मेयर की कुर्सी संभाल चुकी हैं।
सूत्रों का कहना है कि स्वामी प्रसाद की बगावत के बीच शिवपाल सिंह यादव को बदायूं भेजने के पीछे सपा की रणनीति है कि इसका प्रभाव पूरे बरेली मंडल पर पड़ेगा। शिवपाल सिंह इस पूरे क्षेत्र की जमीनी राजनीति के जानकार हैं, साथ ही चुनावी राजनीति के भी माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। स्वामी प्रसाद के अलग होने के बाद सपा अपनी चुनावी चालें लगातार बदल रही है तो स्वामी प्रसाद भी नए–नए पेंतरों के साथ मैदान में आने की तैयारी में जुटे नजर आ रहे हैं। स्वामी प्रसाद की टेंशन में ही शायद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने बदायूं से धर्मेन्द्र यादव को हटाकर चाचा शिवपाल सिंह को उम्मीदवार घोषित कर दिया है। धर्मेन्द्र यादव आजमगढ़ के लोकसभा प्रभारी बनाए गए हैं, जहां वह अखिलेश यादव के इस्तीफे के बाद उपचुनाव लड़े थे मगर भाजपा उम्मीदवारों के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा था। धर्मेन्द्र आजमगढ़ से लड़ेंगे या नहीं, इस पर सपा ने फिलहाल सस्पेंस बनाकर रखा है।
स्वामी प्रसाद की सपा से लड़ाई की वजह क्या रही, इसे लेकर समाजवादी कैंप में कई बातें सुनने को मिल रही हैं।कहा जा रहा है कि वह अपने परिवार के लिए अखिलेश यादव से खास चुनावी पैकेज मांग रहे थे। स्वामी का डिमांड पैकेज लोकसभा चुनाव में सांसद बेटी संघमित्रा और अपने कुछ करीबियों को मौर्य बहुल सीटों पर समाजवादी टिकटें दिलाने को लेकर था। एक तरफ स्वामी प्रसाद की नजर अपने करीबी किसी एक सदस्य को राज्यसभा भेजने की थी तो दूसरी ओर बेटी संघमित्रा मौर्या के लिए आंवला से दावेदारी कर रहे थे। बरेली के कुछ समाजवादी नेताओं से उनकी आंवला को लेकर गुपचुप बात भी हो चुकी थी मगर सपा कैंप में अखिलेश, रामगोपाल के आगे उनकी एक नहीं चली। टिकटों पर बात इतनी बिगड़ी कि स्वामी प्रसाद आग बबूला होकर सपा से बगावत कर गए हैं। कहा जा रहा है कि स्वामी प्रसाद अब ओपन चेलेंज देकर समाजवादी बिग्रेड को बदायूं, आंवला और एटा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद जैसी मौर्य वोटर बहुलता वालीं सीटों पर सबक सिखाने की फिराक में लगे हैं। स्वामी की गतिविधियां बदायूं से आंवला और एटा तक समाजवादी कैंप की धुकधुकी बढ़ा रही हैं।
अलग पार्टी बनाने के बाद स्वामी प्रसाद अपने और परिवार के राजनैतिक फायदे के लिए क्या करने जा रहे हैं, अब इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं। सभी जानते हैं कि स्वामी प्रसाद की चुनावी तिकड़म हमेशा अपने और अपने परिवार के इर्द-गिर्द ज्यादा रहती है। बेटी संघमित्रा मौर्या को चुनावी राजनीति में स्थापित करने को वह क्या-क्या नहीं कर चुके हैं। कभी बसपा में रहते हुए उन्होंने संघमित्रा को मैनपुरी लोकसभा सीट से उस वक्त के सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के खिलाफ तक चुनाव लड़ाया था। उस चुनाव में संघमित्रा मौर्या बड़े अंतराल से चुनावी हारी थीं। स्वामी प्रसाद ने बेटी संघमित्रा को एटा की अलीगंज विधानसभा से भी उम्मीदवार बनाया था मगर वहां भी उनको हार का सामना ही करना पड़ा था।
संघमित्रा को वह बसपा में रहते चुनावी कामयाबी नहीं दिला सके तो उनका यह काम भाजपा ने पूरा करके दिखाया। स्वामी प्रसाद मौर्या ने 2016 में बसपा छोड़ पहले लोकतांत्रिक बहुजन मंच नाम से अपना दल बनाया था और बाद में वह बेटी की उंगली थामकर भाजपा में कूद पड़े थे। 2017 में यूपी के अंदर भाजपा की सरकार बनी तो योगी आदित्यनाथ कैबिनेट में स्वामी प्रसाद मौर्या को मंत्री पद हाथ लग गया और बाद में 2019 के चुनाव में बेटी संघमित्रा को बदायूं में कमल कृपा भी मिल गई। संघमित्रा बदायूं से सपा प्रमुख अखिलेश यादव के अनुज धर्मेन्द्र यादव को पराजित कर लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहीं। हालांकि संघमित्रा के पिता स्वामी प्रसाद पूरे पांच साल भाजपा सरकार में सत्ता सुख लेने के बाद 2022 में समाजवादी कैंप में दाखिल हो गए। सांसद बेटी संघमित्रा मौर्या को वह भाजपा में ही छोड़ गए, जो अभी भी भाजपा में हैं और दूसरी ओर स्वामी प्रसाद मौर्या की सियासी धमाचौकड़ी बसपा, भाजपा और सपा के बाद फिर से अपनी नवेली पार्टी के गठन तक जा पहुंची है।
स्वामी प्रसाद से जुड़े लोग खुलकर कह रहे हैं कि सपा आलाकमान से उनकी पटरी बिल्कुल नहीं खा रही थी। कहने को तो वह राष्ट्रीय महासचिव थे मगर पार्टी में उनकी कोई बात नहीं सुनी जाती थी। पहले तो सपा हाईकमान ने स्वामी प्रसाद की राज्यसभा टिकटोंं को लेकर भी कोई राय-मांग नहीं मानी। उसके बाद संघमित्रा मोर्या के पूर्व पति डा. नवल किशोर शाक्य को स्वामी प्रसाद विरोध के बाद भी फर्रुखाबाद से सपा का लोकसभा उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। नवल शाक्य की शादी संघमित्रा से हुई थी, जिनका बाद में तलाक हो गया था। फर्रुखाबाद के फैसले से परेशान स्वामी प्रसाद की नजर बदायूं पर थी, तो यहां से सपा प्रमुख अखिलेश ने अपने भाई धर्मेन्द्र यादव को उम्मीदवार घोषित कर दिया, जो कि पिछला चुनाव स्वामी प्रसाद मौर्या की बेटी से ही हारे थे। फर्रुखाबाद और बदायूं को लेकर नाराजगी के बीच स्वामी प्रसाद ने पड़ोस की आंवला लोकसभा सीट पर अपने परिवार के लिए दावा ठोंका तो यहां से भी उनको साफ इंकार कर दिया। स्वामी प्रसाद के लिए इतना सब होने के बाद सपा में रहना संभव नहीं रह गया था तो उन्होंने बागी होकर अपनी पार्टी बना ली है।
स्वामी प्रसाद मौर्या पैदा जरूर हिन्दू समाज में हुए मगर हैं मगर उनके पूरे परिवार का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर अधिक है। भगवान राम, रामचरित मानस, गोस्वामी तुलसीदास और पूरे हिन्दू समाज को लेकर उनके विचार और बयान लगातार विवाद का कारण बनते रहे हैं। स्वामी प्रसाद सपा में रहकर चाहते थे कि मौर्या बहुल सीटों पर उनके हिसाब से समाजवादी टिकटों का बंटवारा हो मगर अखिलेश यादव ने ऐसा नहीं किया। स्वामी प्रसाद यह बात बखूबी जानते हैं कि 2019 में बदायूं में उनकी बेटी की विजय का बड़ा कारण मौर्य मतदाता बने थे। सिर्फ बदायूं ही नहीं, आसपास की आंवला, एटा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी लोकसभा सीटों पर भी मौर्य–शाक्य मतदाताओं की तादाद काफी अधिक हैं। मैनपुरी और बदायूं को छोड़ दें तो फर्रुखाबाद, आंवला, एटा में अखिलेश ने इस बार शाक्य-मौर्य बिरादरी के चेहरों के पर ही दांव चला है। स्वामी प्रसाद आग–बबूला होकर सपा से अलग हुए हैं तो जाहिर सी बात है कि वह चुप नहीं बैठने वाले हैं। स्वामी प्रसाद मौर्या से जुड़े लोग कह रहे हैं कि मौर्य बहुल सीटों पर स्वामी नजरें जमाए हैं और बड़ा खेल करने की जोड़तोड़ में लगे हैं। स्वामी कैंप की खबरों से बदायूं, आंवला, एटा के समाजवादी कैंप की बेचैनी बढ़ती नजर आ रही है। बदायूंं से सपा के घोषित उम्मीदवाद धर्मेन्द्र यादव की जगह अचानक शिवपाल सिंह यादव को प्रत्याशी बना दिए जाने को भी स्वामी की टेंशन से ही जोड़कर देखा जा रहा है।