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1947: सरदार संत स‍िंह ने बंटवारे के बाद बहुत बुरे द‍िन ब‍िताए, बरेली में फेरी लगाई तांगा चलाया, अच्‍छे दिन तब आए

बरेली। भारत-पाक‍िस्‍तान का बंटवारा और उसके दर्द शब्‍दों में बयां नहीं क‍िए जा सकते। घर-जमीन, दुकानें सब कुछ छोड़कर लोग क‍िस तरह रातों-रात पाक‍िस्‍तान से जान बचाकर भागे थे, इसकी पीड़ा अब भी पलायन का श‍िकार हुए पर‍िवारों से सुनी जा सकती है। बरेली की अरोरा फैम‍िली भी उन्‍हीं में से एक है। व‍िभाजन के वक्‍त दादा सरदार संत स‍िंह बच्‍चों को कंधे पर ब‍िठाकर दंगाइयों से बचते-बचाते स‍ियालकोट से भारत आए थे। समय का साया इतना खराब क‍ि बरेली में पर‍िवार का पेट भरने को तांगा तक चलानाया था। मगर मेहनत और लगन से हालात बदलते चले गए। आज सरदार संत स‍िंह के पोते जगदीप अरोरा और कुलदीर अरोरा शहर के प्रमुख कपड़ा कारोबारी हैं और अरोरा टैक्‍सटाइल एजेंसी के नाम से सबकी जानी-पहचानी फर्म।

आधी रात को स‍ियालकोट से जान बचाकर न‍िकलेे थे सरदार संत स‍िंंह 

स्‍व. सरदार संत स‍िंंह और उनकी पत्‍नी स्‍व. फूलावंती । (फाइल फोटो)

सरदार संत स‍िंह पाक‍िस्‍तान में नारोवाला, ज‍िला स‍ियालकोट के रहने वाले थे। कपड़े का पुश्‍तैनी जमा-जमाया कारोबार था। जंग-ए-आजादी की लड़ाई में यह कारोबारी पर‍िवार भी अपनी तरह से स्‍वाधीनता सेनान‍ियों की मदद करता रहा था। अचानक अंग्रेजों के भारत छोड़ने का ऐलान हुआ और देश को आजादी म‍िली। इसी खुशी के साथ बंटवारे का कभी न भूलेे जाने वालेे कष्‍ट भी म‍िले। पाक‍िस्‍तान में रह रहे पंजाबी और स‍िख पर‍िवार व‍िभाजन का ऐलान होते ही मुसीबत में आ गए। वहां दंगे शुरू हो गए और दंगाई लोगों को न‍िशाना बनाने लगे। सरदार संत स‍िंंह भी पर‍िवार के साथ संकट में आ गए। वह रातों-रात अपने भाई पूरनचंद्र और खैराती लाल के साथ पूरे पर‍िवार को लेकर वहां से न‍िकल ल‍िए।

बच्‍चों को कंधे पर ब‍िठाकर मीलों भागे, मालगाड़ी में छ‍िपकर बचाई जान 

1947 में बंटवारे का ऐलान होते ही पाक‍िस्‍तान में दंगे शुरू हो गए थे, भारत आने वाले तमाम लोग क‍िसी तरह वहां से सुरक्ष‍ित न‍िकल सके थे।

सरदार संत स‍िंह के पोते जगदीप अरोरा और कुलदीप अरोरा ने खबरची टीम को बताया क‍ि दादा के साथ और दादी फूलावंती पर‍िवार के अन्‍य लोगों के साथ बच्‍चों को कंधों पर ब‍िठाकर बीस‍ियों मील पैदल चले थे। प‍िताजी राजेन्‍द्र स‍िंह उस वक्‍त महज पांच साल और ताऊ जोगेन्‍द्र स‍िंह, बुआ सीतावंती और सुरजीत भी छोटे ही थे। दादाजी हमें बताते थे क‍ि उस वक्‍त पाक‍िस्‍तान में चारों तरफ मारकाट मची थी।  बच्‍चों को सुरक्ष‍ित न‍िकालने की च‍िंता में घरवाले कपड़े-बर्तन भी नहीं ला सके थे। जो भी माल असबाब था, सब कुछ वहीं छूट गया। एक वीरान स्‍टेशन से सभी लोग मालगाड़ी में सवार हो गए और छ‍िपकर अटारी बार्डर पहुंचे। वहां से क‍िसी तरह देहरादून पहुंच गए। कुछ द‍िन वहां ब‍िताए। सरकार ने रहने को सरकारी क्‍वार्टर भी दे द‍िए मगर बहुत मेहनत के बाद भी वहां काम नहीं जमा।

देहरादून से बरेली आकर कपड़े की फेरी लगाई, शहर में तांगा चलाया 

सरदार संंत स‍िंह नेे पाक‍िस्‍तान से बरेली आकर बहुत संघर्ष क‍िया, उनकी कहानी क‍िसी म‍िसाल से कम नहीं। फाइल फोटो

पर‍िवार के लोग बताते हैं क‍ि देहरादून से परेशान होकर दादाजी पूरे पर‍िवार के साथ 1949 में बरेली आ गए। यहां पर‍िवार पुराना शहर में रहने लगा। शुरू में यहां कोई काम नहीं म‍िला। गुजारा करने को दादा को शहर में तांगा चलाना पड़ा। कपड़े की फेरी लगाई। फ‍िर चुंगी से शहामतगंज में पहले खोख और बाद में दुकान म‍िल गई। मेहनत रंग लाई। कपड़े का काम अच्‍‍‍‍छे से चल पड़ा। 1990 में पर‍िवार पुराना शहर से जनकपुरी मेंं श‍िफ़ट हो गया। 1996 में सरदार संत स‍िंह का स्‍वर्गवास हो गया। पुत्र राजेन्‍द्र स‍िंह कारोबारी हुनर में पहले ही महारत हास‍िल कर चुके थे। दादाजी के न‍िधन के बाद उन्‍होंने कारोबार को आगे बढ़ाया। आज शहामतगंज में पर‍िवार का अरोरा क्‍लाथ हाउस है तो बड़ा बाजार में जगत टाकीज मार्केट में अरोरा टैक्‍सटाइल एजेंसी के नाम से मशहूर फर्म। 2003 में राजेन्‍द्र स‍िंह के न‍िधन पर‍िवार को बड़ा आघात लगा। स्‍व. राजेन्‍द्र स‍िंह के दो बेटे जगदीप अरोरा और कुलदीप अरोरा पर‍िवार के साथ अपने कारोबार को गत‍ि दे रहे हैं। कपड़ा कारोबार के क्षेत्र में अरोरा टैक्‍सटाइल बरेली की प्रमुख फर्म मानी जाती है।

पाक‍िस्‍तान जाकर भी अपने गांव नहीं जा सके पर‍िवारवाले, द‍िल में मलाल 
अरोरा फैम‍िली जनपुरी में रहती है, पर‍िवार के लोग कारोबार के साथ समाजसेवा में भी जुटे नजर आते हैं।
जगदीप अरोरा, कपड़ा कारोबारी
कपड़ा कारोबारी कुलदीप अरोरा।

जगदीप अरोरा और कुलदीप अरोरा ने बताया क‍ि उनकी मां संतोष रानी ननकाना साह‍िब मत्‍था टेकेनी गई थीं। गांव जाना चाहती थीं मगर सुरक्षा कारणों से ऐसा नहीं हो सका। पर‍िवार के और लोग भी वहां गए मगर चाहकर भी गांव नहीं जा सके। करतापुर साह‍िब से हमारा गांव महज 18 क‍िमी दूर स्‍थ‍ित है। इच्छा तो बहुत है मगर एक बार अपने पूर्वजों का गांव जाकर देखें मगर पाक‍िस्‍तान के हालात देखते हुए लगता है क‍ि ऐसा शायद ही कभी हो पाएगा।

खबरची/ अजय शर्मा 

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