बरेली । बांस बरेली को मेवा बाजार की सौगात देने वाले स्व. गुरुदास मल आनंद को तो सभी जानते होंगे मगर भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद उनके संघर्ष की कहानी कुछ ही लोगों को पता होगी। आजादी से पहले भी आनंद परिवार गिनती अमीरों में थी मगर विभाजन के फैसले ने उनको तबाह कर दिया था। अकूत संपत्ति होते हुए भी पूरा परिवार सब कुछ पाकिस्तान में छोड़कर किसी तरह वहां से निकला था। जंग-ए-आजादी के सिपाही होने के बाद भी कभी अपना नाम उसी सूची में शामिल नहीं कराया। मेहनत के दम पर वो कर दिखाया, जो जमाने के लिए नजीर है। आज उनके परिवार की खुशहाली और कारोबारी पहचान सुखसागर मेवा वाला के रूप में यूपी सेे उत्तराखंड तक है। संघर्ष की मिसाल-बेमिसाल कहानी के रूप में पेश है खबरची स्पेशल 1947 : पंजाबी द ग्रेट रिफ्यूजी पार्ट-2।
मालगाड़ी में छिपकर पेशावर से अटारी पहुंचा था आनंद परिवार
कुतुवाल इलाके के बड़े कपड़ा कारोबारी थे स्व. लाला महेशदास आनंद। चार बेटे किशनलाल आनंद, गुरुदास मल आनंद, भगवानदास आनंद और प्रहलाद आनंद के साथ आजादी से पहले भरा पूरा परिवार। कई मकान, जमीनों के साथ बेशुमार सम्पत्तियां थीं उनकी पाकिस्तान में। आजादी की लड़ाई छिड़ी तो महज 18 साल की उम्र में गुरुदास मल आनंद भी उसमें कूद पड़े थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को मानते थे और एक खबर मिलते ही अंग्रेजों के खिलाफ कहीं भी झंडा बुलंद कर देते थे। ब्रितानिया सरकार ने उनको जेल भी भेजा मगर सलाखों से बाहर आते ही फिर अंग्रेजों भारत छोड़ों का नारा बुलंद कर दिया था। लंबे संघर्ष के बाद आजादी मिली मगर अपने ही देश में बेगाने हो जाएंगे, यह कोई सोच भी नहीं सकता था। बंटवारे का ऐलान होते ही पाकिस्तान में दंगे छिड़ गए। दंगाइयों के निशाने पर सबसे ज्यादा पंजाबी समाज के लोग थे। लाला महेश दास को परिवार की जान बचाने के लिए रातों रात कुतुवाल छोड़ना पड़ा। कुछ कपड़े और बर्तनों के अलावा कुछ साथ नहीं ला सके। दंगाई भारत जा रहे लोगों का चुन-चुनकर कत्लेआम कर रहे थे। किसी तरह पेशावर से मालगाड़ी में भरे सामान के नीचे छिपकर आनंद परिवार कई जगह रुकता-छिपता अटारी बार्डर पहुंचा सका था।
सब कुछ तो पाकिस्तान में लुटा, यहां आकर झेली भूख-गरीबी
आनंद परिवार के सदस्यों को पिता और दादा से सुनी उनकी आपबीती अभी भी याद है। बताते हैं कि परिवार किसी तरह अटारी बार्डर से हरिद्वार पहुंचा। पास पल्ले कुछ भी नहीं था। वहां से परिवार ने सुरक्षा की सोचकर बरेली का रुख किया, क्योंकि यहां कैंट है। इस अजनबी शहर में सबने शून्य से शुरूआत की। पिता स्व . गुरुदास मल आनंद ने सबसे पहला काम चंदौसी से कपड़ेे की गांठ लाकर बरेली में फड़ लगाकर बेचने का किया। शहर में माल लाने पर एक टका चुंगी लगती थी। उस एक टके को बचाने के लिए पिताजी कंधे पर स्टेशन गांठ रखकर कैंट होते हुए शहर में दाखिल होते थे। कुछ समय बाद परिवार कैंट से ख्वाजा कुतुब आ गया। यहां पाकिस्तान जा चुके एक मकान के कस्टोडियन से छोटा सा घर एलॉट कराया। मुफलिसी में कई घर बदलने पड़े।
मेवा कारोबार ने बदली परिवार की किस्मत, कई बार आग से हुए तबाह
फिर पिता गुरुदास मल आनंद ने मेवा का काम शुरू किया। बाहर से पहले एक बोरा मेवा लाए और किसी की दुकान के सामने फड़ लगाकर उसे बेचा। इससे पहले कि काम जमता, दुकानवालों ने किसी न किसी बहाने फड़ हटवा दिया। मगर मेहनत और किस्मत कोई किसी की कैसे छीन सकता है। तख्त से खोखा बनाया और खोखे के बाद चुंगी से पांच बाई पांच का स्थाई फड़ हासिल किया। काम आगे बढ़ता, उससे पहले ही खोखे में आग लग गई और सब कुछ जल गया। फिर खड़े हुए और किसी तरह काम शुरू किया। सन 1971 में फिर दुकान में आग लग गई। पिताजी अपनी आंखों के सामने दुकान जलते और माल लुटते देखते रहे। सन 89 में पांच बाई पांच की दुकान से 10 बाई पांच की दुकान ली तो कारोबार उसके बाद राह पकड़ गया। बरेली शहर में मेवा बाजार स्व . गुरुदास मल आनंद की ही देन है। बरेली को काजू की कई बैराइटी से रूबरू भी उन्होंने ही कराया था। शहर में मेवा के कारोबार को शोरूम की शक्ल भी वही देकर गए। 2 अक्टूबर 2010 को गुरुदास मल आनंद का निधन हो गया। कुतुबखाना के पास स्थित सुख सागर मेवा वाला उनकी मशहूर फर्म है, जिसे आनंद परिवार संचालित कर रह रहा है। पत्नी कैलाशी आनंद, तीन बेटे अशोक आनंद, बिपिन आनंद और संजय आनंद परिवार के साथ राजेन्द्र नगर में बांके बिहारी मंदिर के पास रहते हैं। परिवार का संघर्ष और खुशहाली समाज के लिए मिसाल है।
राजनीति से समाज सेवा तक हर काम में आगे संजय आनंद
स्व. गुरुदास मल आनंद के कनिष्ठ पुत्र संजय आनंद राजनीति से समाज सेवा तक जाना पहचाना नाम हैं। पिता खांटी कांग्रेसी थे। उसी तरह संजय आनंद भी लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के काफी करीब रहे। बरेली कॉलेज में पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति की। लंबे समय कांग्रेस में सक्रिय रहे। इसके बाद समाज सेवा में उतर गए। पंजाबी महासभा के पहले महामंत्री रहे और अब अध्यक्ष हैं। सरकार भले अपनी योजनाओं को पूरी तरह जमीन पर उतारने में नाकाम साबित रहती हो मगर संजय आनंद के प्रयासों से महासभा शहर में समाज में विधवा पेंशन, गरीबों को एक महीने का राशन देने वाली अन्नपूरक योजना, गरीब कन्याओं की शादी जैसे पुनीत कार्य लगातार कर रही है। लंगर ऑन व्हील भी महासभा चला रही है। अब तक 357 लंबर किए जा चुके हैं। पिताजी के निधन पर संजय आनंद वातुनकूलित शव शैया दान की। इसके बाद महासभा की ओर से तीन और शव शैया समाज को दी जा चुकी हैं। इसके अलावा एक स्वर्गधाम भी पंजाबी महासभा ने समाज को सौंपा है, जो हजारों शवों को ले जा चुका है। इसके अलावा संजय आनंद के साथ पूरी पंजाबी महासभा एक मंच पर आकर शहीदों की याद में श्रृद़ांजलि कार्यक्रम, शहर से देहात तक लोहड़ी, दशहर पूजा सहित कई कार्यक्रम हर साल करती है। इसेे देख कर कहा जा सकता है कि संघर्ष, समृद्धि, सेवा, संंस्कार और सरोकार आनंद फैमिली के एक आंगन में बसते हैैं। उनकी खुशहाली का शायद यही राज भी है।
रिपोर्ट: अनुरोध भारद्वाज/ अमित नारायण शर्मा